राजू एक छोटे से कस्बे में रहता था। घर में कुल पांच लोग थे — माँ, पिता, पत्नी और एक प्यारा सा बेटा। राजू एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था, महीने की तन्ख्वाह ठीक-ठाक थी, लेकिन अमीर बनने का सपना तो हर किसी का होता है।
हर शाम जब ऑफिस से लौटता, तो रास्ते में चमचमाती कारें देखकर उसका मन मचल जाता। सोचता — "काश मेरे पास भी एक गाड़ी होती।" लेकिन फिर घर की हालत याद आ जाती — छत से पानी टपकता था, दीवारों पर पुरानी पुताई उखड़ने लगी थी और बच्चे को पढ़ने के लिए एक शांत कोना तक नहीं था।
एक दिन उसने घर पर सभी को इकट्ठा किया और पूछा —
"हमें कार लेनी चाहिए या घर बनवाना चाहिए?"
पिता ने कहा, "बेटा, कार तो बाहर खड़ी रहेगी, लेकिन घर वो जगह है जहाँ सब मिलकर चैन से रह सकते हैं।"
माँ ने जोड़ा, "गाड़ी आराम देती है, लेकिन घर सुरक्षा देता है।"
पत्नी ने मुस्कुरा कर कहा, "अगर घर अच्छा होगा, तो कभी भी कोई कार खरीद सकते हैं। लेकिन कार लेकर घर की मरम्मत नहीं हो सकती।"
छोटा बेटा मासूमियत से बोला, "पापा, मुझे तो बस एक कमरा चाहिए, जहाँ मैं आराम से पढ़ सकूं।"
राजू ने सबकी बातें सुनीं और दिल ही दिल में फैसला कर लिया — पहले घर को ठीक कराना जरूरी था। कार तो भविष्य में आ ही जाएगी।
उस रात, उसने आसमान की ओर देखा और खुद से कहा — "पहले जड़ें मजबूत करूँगा, तब ही तो पेड़ पर फल लगेंगे।"
सीख:
हर फैसला सोच-समझकर, भविष्य की नींव को ध्यान में रखते हुए लेना चाहिए। कार आराम देती है, लेकिन घर सुकून और सुरक्षा। सही समय पर सही प्राथमिकता तय करना ही समझदारी है।
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